india-china reationship in hindi |
भारत चीन के मध्य आपसी संबंध :-
भारत-चीन सम्बन्ध में कुछ कठिनाइयां भी है, जैसे भारत की राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था चीन की साम्यवादी पद्धति से भिन्न है। भारत शान्तिपर्णा सह-अस्तित्व तथा पंचशील के सिद्धान्तों में। विश्वास रखता है, परन्तु कम्युनिस्ट चीन का दर्पण आक्रामक साम्राज्यवादी तथा विस्तारवादी प्रतिबिम्ब का देखता है। उसकी महत्त्वाकांक्षा एशिया में सर्वशक्तिमान बनने की है। वह तोड़-फोड़, आतंक, क्रान्ति, कपट धूर्तता, विश्वासघात तथा हिंसा में विश्वास रखता है।
माओ त्से-तंग का कथन:-
''राज्य में शक्ति का प्रवाह बन्दूक की नली से होता है। इसके विपरीत एशिया में भारत सभ्यता, संस्कृति, उच्च कोटि की संस्कृत भाषा, जनशक्ति, प्राकृतिक संसाधन आदि की दृष्टि से चीन से किसी क्षेत्र में कम नहीं है। चीन विश्व को यह दिखाना चाहता था कि भारत विश्व का एक दुर्बल देश है।
ये कुछ ऐसे बिन्दु हैं जिनके कारण भारत-चीन सम्बन्ध बड़े उतार-चढ़ाव के रहे हैं। इसी सन्दर्भ में हम भारत-चीन सम्बन्धों का अध्ययन निम्नलिखित रूप से करेंगे ।
1. भारत का दृष्टिकोण || India's perspective :-
चीन के साथ भारत प्रारम्भ से ही मित्रता की इच्छा व्यक्त करता रहा है। स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों में नेहरू जी ने कहा था, "चीन भारत से सदैव मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रखेगा।'' चीन में जब माओ त्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्ट शासन की स्थापना हुई। तो भारत ने उनके साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों को और अधिक बढ़ाया।
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भारत ने 1949 ई० में चीन की साम्यवादी क्रान्ति का स्वागत किया। भारत ने चीन को मान्यता भी दी। दिसम्बर 1950 ई० में सैन फ्रांसिस्को में 49 राष्ट्रों का सम्मेलन हुआ। उसमें चीन को निमन्त्रित नहीं किया गया। इस पर भारत भी सम्मेलन में सम्मिलित नहीं हुआ। भारत ने संयुक्त राष्ट्र से चीन को मान्यता देने का अनुरोध किया। इस प्रकार चीन के प्रति भारत का दृष्टिकोण सदैव मैत्रीपूर्ण रहा है।
2. चीन के प्रति भारत की भ्रान्तिपूर्ण धारणाएँ :-
प्रारम्भ में सोचा गया कि पंचशील सिद्धान्त भारतीय कूटनीति की बहुत बड़ी सफलता है। परन्तु वास्तव में यह भारत की कूटनीतिक पराजय थी। चीन सम्बन्धी नीति में भारत की धारणाएँ भ्रान्तिपूर्ण निकलीं। चीन के साम्राज्यवादी दृष्टिकोण को भारत समझ नहीं पाया। वास्तव में, चीन विस्तारवादी नीति में विश्वास करता है। भूतकाल में चीन ने कभी आक्रमण नहीं किया था।
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इसलिए सोचा गया कि चीन शान्तिप्रिय देश है। परन्तु बीसवीं शताब्दी में विज्ञान की प्रगति के कारण दुर्गम स्थानों पर भी। आवागमन सरल हो गया, जिसका चीन में 1962 ई० में आक्रमण में लाभ उठाया। भारत ने तिब्बत को चीन को सौंपकर अदूरदर्शिता का परिचय दिया। इसके अतिरिक्त भारत की विदेश नीति के निर्माता यह भूल गए कि दक्षिण एशिया में जागरण की लहर दौड़ी है। अतः भारत और चीन के मध्य टकराव की राजनीति उत्पन्न हो सकती है।
3. तिब्बत पर भारतीय नीति :-
तिब्बत भारत का पड़ोसी राज्य है। इसके उत्तर में चीन का सिक्यांग राज्य है। अंग्रेजों ने तिब्बत के सम्बन्ध में भारत को कुछ अधिकार दिए थे; जैसे - ल्हासा में भारत का एक राजनीतिक एजेण्ट रहेगा। ग्यान्तसे से गंगटोक और यातुंग में व्यापारिक एजेंसी की स्थापना की जा सकती है। व्यापार मार्ग पर भारत ग्यान्तसे में व्यापारिक चौकी तथा डाक तार का कार्यालय रख सकता है। ग्यान्तसे में व्यापार मार्ग की सुरक्षा के लिए एक सैनिक दस्ता भी रखना आवश्यक है।
चीन सदियों से तिब्बत पर अधिकार बता रहा था। जब चीन में साम्यवादी सरकार बन गई तब उसने तिब्बत पर अपना अधिकार घोषित कर दिया। 1950 ई० में चीन सरकार ने तिब्बत को स्वतन्त्र कराने की घोषणा कर दी। भारत ने चीन सरकार से वार्तालाप भी किया। इसके अनुसार भारत ने तिब्बत में चीन अधिकार स्वीकार कर लिया, जो भारत की सबसे बड़ी भूल थी। भारत सरकार ने यातुंग तथा ग्यान्तसे से अपने सैनिक भी हटा लिए। चीन ने तिब्बत पर अपनी सार्वभौमिकता स्थापित कर ली। भारतीय नीति की संसद आलोचना भी हुई। इस प्रकार 1956 ई० तक भारत तथा चीन के मध्य अच्छे सम्बन्ध रहे।
4. चीन का भारत के प्रति कटु व्यवहार :-
सन् 1956 ई० में तिब्बत के खम्पा क्षेत्र में चीनी शासन के विरुद्ध विद्रोह हो गया। यह विद्रोह 1959 ई० तक चला। इस विद्रोह को दलाईलामा का समर्थन प्राप्त था। चीन सरकार ने इसे कठोरता के साथ कुचल दिया। 31 मार्च, 1959 ई० को दलाईलामा ने अपने कुछ साथियों के साथ भारत में राजनीतिक शरण ली।
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उसके पश्चात् लाखों की संख्या में तिब्बती शरणार्थी हिमाचल प्रदेश आए। कुछ को मसूरी में बसा दिया गया। चीन की सरकार ने भारत सरकार पर दोष लगाया कि उसने शत्रुतापूर्ण कार्य किया है। इस प्रकार चीन तथा भारत के सम्बन्ध कटुतापूर्ण हो गए।
5. भारत-चीन सीमा विवाद की स्थिति—
इसी समय भारत और चीन के मध्य सीमा को लेकर विवाद प्रारम्भ हो गया। भारत अपने और चीन के मध्य मैकमोहन रेखा को सीमा-रेखा मानता है, परन्तु चीन उसे स्वीकार नहीं करता है। चीन का कथन है कि इस रेखा को चीन की किसी सरकार ने मान्यता नहीं दी है। इसी आधार पर उसने भारत की प्रादेशिक सीमाओं में अक्साई-चिन सड़क को अनधिकृत रूप से बनाकर भारत के बड़े भू-भाग पर अधिकार कर लिया। 1956 ई० में चीन ने अपने दावे के समर्थन में एक मानचित्र प्रस्तुत किया
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जिसमें चीन ने भारत के एक बड़े भू-भाग को चीन का अंग दिखाया। भारत सरकार ने इस पर चीन के प्रति नाराजगी प्रकट की तथा उसे पूर्णतया अमान्य घोषित कर दिया। इस दावे में लगभग 50,000 वर्ग मील भूमि
चीन के अधिकार क्षेत्र में हैं। विस्तारवादी चीन द्वारा उठाए गए कदम के विरुद्ध पं० नेहरू ने लोकसभा में कहा था, “एशिया के दो राष्ट्रों की योजना शस्त्र धारण करने की है तो यह सम्पूर्ण विश्व को प्रकम्पित करने वाला होगा।
6. चीन का विश्वासघाती कार्य-
भारत ने अपनी शान्तिपूर्ण नीति का प्रदर्शन करते हुए 10 मई, 1962 ई० को चीन के समक्ष सीमा सम्बन्धी प्रश्न को निश्चित करने का प्रस्ताव रखा। परन्तु चीन ने उसको अवहेलना की और 11 जुलाई को भारत पर आक्रमण कर दिया। भारत युद्ध के लिए तैयार नहीं था, परन्तु स्थिति का अवलोकन करते हुए वह राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से युद्ध के लिए मैदान में उतर गया। 21 नवम्बर, 1962 ई० को चीन ने अचानक अपनी ओर से एकपक्षीय युद्ध विराम की घोषणा कर दी और युद्ध समाप्त हो गया।
सुझाव :-
भारत एवं चीन के वृहत्तर सहयोग के लिए सर्वप्रथम अपने सीमा विवाद को सुलझाना चाहिए। चीन को मैकमोहन रेखा के विषय में भारत से सहयोग करना चाहिए। चीन द्वारा पाकिस्तान को की गई हथियारों की आपूर्ति भारत चीन सम्बन्धों में तनाव पैदा करती है।
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अतः चीन को पाकिस्तान को हथियारों की आपूर्ति के समय सतर्क रहने की आवश्यकता है। दलाईलामा के विषय पर भी दोनों देशों को बातचीत द्वारा एक सर्वमान्य उपाय निकालना चाहिए। इन सभी उपायों द्वारा ही इस क्षेत्र का विकास हो सकता है।
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